मैं हँसता हूँ , मैं रोता हूँ ,
मैं गाता हूँ , मैं सोता हूँ ,
हर बार अकेलेपन में मैं ,
खुद को यही कहता हूँ ,
नहीं , कुछ तो कम है ।
इन फिजाओं में , इन घटाओं में ,
सूरज से तपती हवाओं में ,
क्या खूब कहा है शायर ने ,
महफ़िल में बैठे बेगानों में ,
नहीं , कुछ तो कम है ।
पागलों के इस परवाने को ,
मस्ती में झूमते मस्ताने को ,
समझाओ मत अब और कुछ ,
दुखियों के इस दीवाने को ,
नहीं , कुछ तो कम है ।
न दवा लगे , न दुआ लगे ,
दया भी जिसकी सजा लगे ,
गुलाब के इस पौधे के ,
किस्मत में बस हैं कांटे लगे ,
नहीं , कुछ तो कम है ।
जिसे चाहा वोह न अपना हुआ ,
हर रिश्ता मेरा सपना हुआ ,
ख़ुशी की फरियाद की दिल से ,
मुझको वोह भी मना हुआ ,
हाँ , कुछ तो कम है ।
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