Friday, 21 October 2011

इंसानियत


इंसान  हम  कहते  खुद  को , इंसानियत  पूजा  करते  हैं ,
भंवर  में  फंसे  लोगों  को  देख , आँखें  बंद  कर  चलते  हैं ,
गलतियाँ  खुद  कर  के  हम , देश  को  आगे  करते  हैं ,
फिर  गौरवांकित  होकर , इसको  पिछड़ा  कहते  हैं |

इंसानियत  के  चोले  में , हैवानियत  छुपाई  है ,
राक्षशों  से  बढ़कर , अपनी  शख्सियत  बनाई  है ,
लहू  के  रंग  का  आज , चढ़ा  ये  कैसा  भंग  है ,
कतरा  कतरा  चीख  रहा , कैसा  ये  प्रचंड  है |

धर्म  के  नाम  मारना  है , बिन  बात  मार  डालेंगे ,
लाशों  के  इस  ढेर  पे , आशियाँ  बनाई  है ,
खुदा  के  बन्दे  कहते  खुद  को , नमाज़  भी  न अदा  की ,
मंदिरों  में  जा  कर  उन्होंने , सिर्फ  घंटियाँ  बजायी  है |

आग  जो  लगानी  है  तो , सीने  में  जगाओ  तुम ,
लाशें  जो  बिछानी  है , देश  के  दुश्मनों  को  मारो  तुम ,
मरते  हैं  तो  रोज़  लोग , तुम  क्या  ख्याति  पाओगे ,
शान  से  जिओगे , और   शहीद  कहलाए  जाओगे |

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